मटर की खेती के उपाय और कीटनाशकों से सुरक्षा
मटर (Pea) एक प्रमुख दलहन फसल है, जो न केवल प्रोटीन का अच्छा स्रोत है बल्कि मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक है। भारत के विभिन्न हिस्सों में मटर की खेती रबी मौसम में की जाती है और यह किसानों के लिए एक लाभकारी फसल मानी जाती है। यदि सही समय पर बुआई की जाए और उचित देखभाल की जाए, तो मटर की खेती से बंपर पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
मटर की बुआई का सही समय
मटर की बुआई का सबसे उपयुक्त समय अक्टूबर से नवंबर के बीच होता है। इस समय तापमान 15-20 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है, जो अंकुरण और पौधे के प्रारंभिक विकास के लिए अनुकूल होता है।
मिट्टी और खेत की तैयारी
मटर की खेती के लिए अच्छी जलनिकासी वाली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। खेत को 2-3 बार जुताई करके भुरभुरा बना लें और पाटा लगाकर समतल कर लें। जलभराव से फसल को नुकसान हो सकता है, इसलिए खेत में उचित ढलान और नाली व्यवस्था रखें।
बीज और बीजोपचार
बुवाई से पहले बीज को जैव उर्वरक Rhizobium कल्चर से उपचारित करना चाहिए। इससे पौधे की जड़ों में गांठें बनती हैं, जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण में मदद करती हैं और पौधों को मजबूत बनाती हैं। बीजोपचार से फसल की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।
सिंचाई प्रबंधन
मटर की फसल को ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती। लेकिन फूल आते समय और फल बनते समय हल्की सिंचाई ज़रूरी होती है, जिससे फसल की गुणवत्ता और उत्पादन दोनों बेहतर होता है। आवश्यकता से अधिक सिंचाई करने से फसल में रोग लगने का खतरा बढ़ जाता है।
कीटनाशक से सुरक्षा के उपाय
मटर की खेती में कई बार कीट और रोग लगने का खतरा रहता है, जिसके लिए किसान कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। लेकिन इनका उपयोग करते समय सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है:
- छिड़काव करते समय दस्ताने, मास्क और चश्मा अवश्य पहनें।
- बच्चों और पशुओं को खेत से दूर रखें।
- छिड़काव के बाद कम से कम 24 घंटे तक खेत में प्रवेश न करें।
- नीम तेल, ट्राइकोडर्मा, दशपर्णी अर्क जैसे जैविक कीटनाशकों का प्रयोग प्राथमिकता से करें।
- रासायनिक दवाओं का अत्यधिक और अनियंत्रित प्रयोग न करें, यह मिट्टी और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है।
निष्कर्ष
मटर की खेती यदि वैज्ञानिक तरीकों से की जाए और जैविक एवं सुरक्षित कीटनाशकों का उपयोग हो, तो यह किसानों के लिए एक लाभकारी और टिकाऊ विकल्प बन सकती है। इससे न केवल फसल की पैदावार बढ़ती है, बल्कि पर्यावरण और किसान का स्वास्थ्य भी सुरक्षित रहता है।
सुरक्षित किसान, समृद्ध किसान – यही है टिकाऊ खेती की पहचान।
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