लागत भी पूरी नहीं कर पा रहा किसान

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लागत भी पूरी नहीं कर पा रहा किसान

किसानों को उनकी फसलों की लागत के अनुसार लाभांष जब तक नहीं प्राप्त होता है तब तक किसानों की आर्थिकी भी मज़बूत करने के दावे खोखले ही रहेंगे । कच्चा माल उत्पादक केवल किसान है । उसके बाद प्रोसेसिंग होती है और रिफाइन उत्पाद हम तक पहुंच पाता है । मार्केट का सर्वेक्षण यदि करते हैं तो हम पाते हैं कि किसानों से कच्चा माल सौदाकर के बेहद सस्ते दामों पर खरीदा जाता है और उसके बाद प्रोसेसिंग के लिए जब वही कच्चा माल फैक्ट्री में पहुंचता है तो उसके दाम कई गुणा बढ़ जाते हैं । यहां प्रोसेसिंग का खर्चा और उस पर आने वाली लागत को समझा जा सकता है । कच्चा माल मषीनी प्रोसेसिंग के बाद फैक्ट्री की वास्तविक लागत से होकर ही तैयार उत्पाद का रुप लेता है जिसके लिए उसमें खर्चा जुड़ना वाज़िब भी है लेक़िन किसानों को मिलने वाली लागत की तुलना में उत्पाद की कीमतें कई गुणा अधिक होकर आम लोगों के पास पहुंचती है तो यह विडंबना नहीं तो और क्या है ? किसान जो खेतों में जी तोड़ मेहनत कर हड्डियो को दिनरात गलाता है, मेहनत करता है, पसीना बहाता है, फसलों को उगाता है, उसे बेहद कम दामों पर चुप रहने के लिए मज़बूर कर दिया जाता है जबकि फैक्ट्र मालिक अथवा बिचौलिए उसी फसलों पर कई गुणा रकम कमाकर धन्नासेठ बन जाते हैं । यह किसानों की मेहनत के साथ न्याय नहीं है ।

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उदाहरण के लिए किसान एक बीघा ज़मीन में लगभग 70 क्विंटल गन्ना उगाता है । बीज का खर्चा लगभग 2500/रुपये और जोताई का 1500/ रुपये से अधिक आता है । बोआई करने एवं अन्य मज़दूरी चार्ज 3000/ रुपये है । पानी लगाने का खर्चा 10,000/ रुपये आता है । खाद का खर्च 3200/ रुपये और दवा पर 800/ रुपये का खर्चा आता है । इसके अलावा ढुलाई सहित अन्य लेबर चार्ज 2500 रुपये से ज़्यादा है । कुल लागत 23 हज़ार रुपये से अधिक की हुई । एक बीघा में लगभग 70 क्विंटल गन्ना होता है जैसे कि पहले कहा गया था । समर्थन मूल्य 325/ रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से कुल 23000/रुपये से कम ही किसान को मिल पाए । अब यहां स्पष्ट है कि किसान बचा कुछ नहीं पा रहा है । मेहनत से वो लागत का पैसा भी पूरा नहीं कर पा रहा है । यहां यह स्थिति भी तब है जब मौसम किसान और खेती के अनुकूल हो और वर्षा आदि समय पर हो जाए । ऐसा न होने पर तो किसान की बर्बादी और दुर्दषा तय है ।

यहां एक बात कहना ग़लत न होगा कि ग्रामीण भारत शहरी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है । लोगों के पेषे और आषाओं में भी बदलाव आ रहे हैं। एक बस्ती शहरी तब बनती है जब उसकी आबादी 5000 से अधिक, जनसंख्या घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर और 75 प्रतिशत पुरुष आबादी कृषि से अलग काम करती हो । 2011 की गणना में पहली बार गांव की आबादी में गिरावट देखी गई । छोटे से खेत में भी गांव में खेती करने के प्रति निरुत्साहन ही दिखा । शहरों की तरफ रोजी-रोटी की तलाष अधिक दिखाई दी ।

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