आंवले की वैज्ञानिक खेती एवं उपयोग

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आंवले की वैज्ञानिक खेती एवं उपयोग

आंवला, यूफोरबिएसी परिवार का पौधा है। इसका फल कैप्सूल अंडाकार, गोल से लेकर चपटा गोलाकार, रंग सफेद, छिलका हरा चिकना से खुरदरा, अर्द्धपारदर्शी, 6.8 खंडों में विभाजित होता है। फलों की सतह चिकनी या हल्की उठी हुई होती है। फल की गुठली कड़ी, गोल से लेकर त्रिकोणीय आकार की होती है। बीज की बाहरी भित्ति कड़ी और बीज हल्के भूरे रंग से लेकर गहरे भूरे रंग की होती है। आंवला, विटामिन सी से भरपूर होता है। यह विभिन्न प्रकार के रोगों एवं व्याधियों से दूर रखने के लिए एक गुणकारी औषधि की तरह है। इसके फलों को, ताजा एवं सुखाकर, दोनों तरह से उपयोग में लाया जा सकता है।

आँवले  का पौधा जलवायु एवं भूमि, दोनों के प्रति काफी सहिष्णु होता है। इसके लिए शुष्क जलवायु उत्तम मानी जाती है। उचित जल निकास के साथ बलुई दोमट से मटियार दोमट मृदा, जो कैल्शियमयुक्त हो, सर्वोत्तम रहती है। भारत में आंवले की खेती समुद्र तल से 1800 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। जाड़े में इसके नये बगीचों में पाले का हानिकारक प्रभाव पड़ता है, परन्तु एक पूर्ण विकसित आंवले का वृक्ष 0.46 डिग्री सेल्सियस तापमान तक सहन करने की क्षमता रखता है। गर्म वातावरण, पुष्प कलिकाओं के निकलने में सहायक होता है। जुलाई-अगस्त में अधिक आर्द्रता का वातावरण सुषुप्त छोटे फलों की वृद्धि में सहायक होता है।

किस्में

आंवले की किस्मों में चकैय्या, बनारसी, फ्रांसिस, कृष्णा, कंचन, नरेंद्र आंवला 6,7,10, गंगा एवं भवानीसागर प्रमुख हैं।

खाद एवं उर्वरक

आंवले को उचित वृद्धि और विकास के लिए प्रत्येक वर्ष 100 ग्राम नाइट्रोजन, 60 ग्राम फॉस्फोरस एवं 75 ग्राम पोटाश प्रति वृक्ष की दर से देना चाहिए। इसके साथ ऊसर भूमि में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई देने पर 2-3 वर्षों के अंतराल पर 250 से 500 ग्राम जिंक सल्फेट फलन वाले पौधों में देना चाहिए।

सिंचाई

आंवले में सिंचाई गर्मियों में जहां 2 बार की जाती है, वहीं सर्दियों में केवल एक बार ही करनी होती है। इसके अलावा बारिश शुरू होने से पहले पौधों के चारों तरफ गड्ढा बना देने से पौधों को भरपूर मात्रा में पानी  मिलता है तथा बारिश खत्म होने पर इन थालों को फसल अवशेष से आवरित कर देने से मृदा में लंबे समय तक नमी बनी रहती है।

पुष्पण एवं फल वृद्धि

आंवले में फूल बसंत ऋतु में आते हैं। फूलों का खिलना मार्च के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर तीन सप्ताह तक चलता है। बीजू किस्मों में पुष्पण की क्रिया पहले प्रारंभ होती है, जबकि व्यावसायिक किस्मों में पुष्पण बाद में होता है। दक्षिण भारत में पुष्पण वर्ष में दो बार फरवरी, मार्च और जून-जुलाई होता है। पहली बार वाले पुष्पण की तुलना में दूसरी बार वाले पुष्प कम उपज देते हैं। फलों में सर्वाधिक वृद्धि सितंबर माह में होती है। उत्तर भारतीय दशाओं में फल नवंबर तक परिपक्व हो जाते हैं।

रोग नियंत्रण

आंवले में मुख्यतः ऊतक क्षय एवं रस्ट रोग लगता है। इनके नियंत्रण के लिए 0.4.0.5 बोरेक्स का छिड़काव पहली बार अप्रैल में, दूसरी बार जुलाई में एवं तीसरी बार सितंबर में करना चाहिए। ऊतक क्षय एवं रस्ट नियंत्रण हेतु 0.2 डाईथेन जेड 78 या मैंकोजेब का छिडकाव 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।

 कीट नियंत्रण

आंवले में शूट गॉल मेज के अलावा छाल एवं पत्ती खाने वाले कीट प्रमुख हैं। इनके नियंत्रण हेतु छाल वाले कीटों के लिए मेटासिस्टॉक्स या डाइमिथोएट और इसके अलावा मिट्टी के तेल में रुई को भिगोकर तने के छिद्रों में डालकर चिकनी मिट्टी से बंद कर देना चाहिए। पत्ती खाने वाले कीट के लिए 0.5 मि.ली. फॉस्फोमिडान प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। शूट गॉल मेज के लिए 1.25 मि.ली. मोनोक्रोटोफॉस या 0.6 मि.ली. फॉस्फोमिडान को प्रति लीटर पानी मिलाकर छिडकाव करना चाहिए।

परिपक्वता

आंवले की व्यावसायिक किस्मों में परिपक्वता सूचकांक का निर्धारण फल लगने के उपरांत टी.एस.एस., अम्ल अनुपात एवं आपेक्षिक घनत्व के अनुसार किया जाता है। बनारसी एवं कृष्णा किस्मों में परिपक्वता फल लगने के 17-18 सप्ताह बाद आती है, जबकि कंचन और फ्रांसिस में 20 सप्ताह का समय लगता है। चकैय्या किस्म में फल परिपक्वता के लिए लगभग 23 सप्ताह लगते हैं। परिपक्वता के समय आपेक्षिक घनत्व सभी किस्मों में 1.0 से अधिक पाया जाता है।

तुड़ाई

आंवले के फलों की तुड़ाई हाथ से करते हैं। यह क्रिया बड़े वृक्षों में संभव न होने के कारण, बांस से बनी सीढ़ियों पर चढकर भी की जाती है।

फलन

आंवले का कलमी पौधा रोपण से तीसरे वर्ष तथा बीजू पौधा 6-8 वर्ष बाद फल देना प्रारंभ कर देता है। कलमी पौधा 10-12 वर्ष बाद पूरी तरह फल देने लगता है। पौधे की अच्छी तरह से देखभाल करने पर यह लंबे समय फल देता रहता है।

श्रेणीकरण

आंवले के फलों को तीन श्रेणियों में उनके आकार, भार, रंग एवं पकने के समय के आधार पर बांटा जा सकता है। बड़े आकार के फल व्यास 4 सें.मी. से अधिक, को मुरब्बा बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। मध्यम आकार के फलों को अन्य परिरक्षित पदार्थ बनाने में एवं छोटे आकार के फलों को औषधीय उत्पादों जैसे च्यवनप्राश, त्रिफला इत्यादि बनाने में उपयोग किया जाता है।

पैकिंग

आंवले के फलों का अच्छी तरह से रख रखाव एवं पैकिंग न करने से लगभग 20 प्रतिशत तक का नुकसान होता है। इसलिए आंवले की पेटीबंदी करते समय अत्यधिक सावधानी रखने की आवश्यकता होती है। जूट की बोरियां एवं अरहर के तनों से बनी टोकरियां प्रायः आंवले की पैकिंग में प्रयोग की जाती हैं।

जूस 

आंवले के छोटे-छोटे टुकड़ों को फिल्टर प्रेस द्वारा दबाकर जूस निकालने के बाद 780 ब्रिक्स तक गर्म करके जीवाणुहीन कर दिया जाता है। तैयार जूस को कांच की निर्जमीकृत बोतलों में भर देते हैं। इस प्रकार से तैयार जूस 500 पी.पी.एम. सल्फर डाइऑक्साइड या एक ग्राम पोटेशियम मेटाबाईसल्फाइट प्रति लीटर की दर से मिलाकर परिरक्षित किया जाता है।

स्क्वैश

स्क्वैश, जूस या गूदा से बनाया जाता है। इसके लिए 35 से 40 प्रतिशत जूस में 50 प्रतिशत चीनी, 1.1 प्रतिशत सिट्रिक अम्ल एवं 350 पी.पी.एम. सल्फर डाइऑक्साइड 750 मि.ली./कि.ग्रा. को मिलाने के बाद हल्की आंच पर गर्म करके, साफ की गई निर्जीकृत बोतलों में भरकर भंडारित करते हैं। उपयोग करने के लिए तीन भाग पानी में एक भाग स्क्वैश मिला लेना चाहिए।

शर्करा के घोल में आंवले की फांके

यह एक नया उत्पाद है। इसमें आंवले में विद्यमान पौष्टिक गुणों को अधिक मात्रा में संरक्षित किया जाता है, जो मुरब्बा बनने की जटिल प्रक्रिया के दौरान नष्ट हो जाते हैं। फलों को खौलते पानी में 6-8 मिनट तक रखते हैं । फिर ठंडा करके, फांकें अलग-अलग कर लेते हैं। इसके बाद इन फांकों को 0.5 प्रतिशत खटासयुक्त विभिन्न सांद्रता वाले (50ए 60 एवं 700 ब्रिक्स) शर्करा के घोलों में क्रमशः एक घंटे के लिए रखते हैं। अंत में शर्करा के घोल में अतिरिक्त चीनी मिलाकर इसे 700 ब्रिक्स तक सांद्रित करके उबाल लेते हैं। अब इन फांकों को इस घोल में मिलाकर साफ-सुथरे जार में बंद कर लेते हैं।

चूर्ण

आंवले के फल से अलग की गई फांकों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर उन्हें विद्युतचालित यंत्र में 60 डिग्री सेल्सियस पर 8-10 घंटे सुखाते हैं। इसके बाद इनको पीसकर चूर्ण बना लेते हैं। आंवले का चूर्ण बनाने हेतु प्रति 100 ग्राम चूर्ण में 8 ग्राम साधारण नमक, 16 ग्राम काला नमक, 15 ग्राम चीनी, 3 ग्राम सिट्रिक अम्ल, 2 ग्राम पिसी काली मिर्च, 1 ग्राम हींग, 1 ग्राम भुना पिसा जीरा, 1 ग्राम पिसी सौंफ, 1.5 ग्राम सोंठ एवं 0.5 ग्राम अजवायन मिलाते हैं। अजवायन के नहीं होने पर 2-5 ग्राम पिसी पुदीने की पत्ती को भी मिला सकते हैं। तैयारचूर्ण को सूखे जार में हवा अवरोधक अवस्था में भंडारित कर लेते हैं।

 

अन्य उपयोग

आंवला तीव्र शीतलतादायक,  मूत्रक और मृदुरेचक होता है। एक चम्मच आंवले के रस को यदि रोजाना शहद के साथ मिलाकर सेवन किया जाए, तो इससे कई प्रकार के विकार जैसे.क्षय रोग, दमा, खून का बहना, स्कर्वी, मधुमेह, खून की कमी, स्मरण शक्ति की दुर्बलता, कैंसर, अवसाद एवं अन्य मस्तिष्क विकार, इनफ्लुएंजा, ठंडक, समय से पहले बुढ़ापा, बालों का गिरना एवं बालों के सफेद होने से बचा जा सकता है। प्रायः देखा गया है कि यदि एक चम्मच ताजे आंवले का रस, एक कप करेले के रस में मिश्रित करके दो महीने तक प्रातःकाल सेवन किया जाए, तो प्राकृतिक इंसुलिन का स्राव बढ़ जाता है। इस प्रकार यह मधुमेह रोग में रक्त मधु को नियंत्रित करके शरीर को स्वस्थ करता है। इसके साथ ही रक्त की कमी, सामान्य दुर्बलता तथा अन्य कई परेशानियों से मुक्ति दिलाता है।

आँवले का खाने में प्रयोग

मुरब्बा

बाजार में उपलब्ध आंवले के मूल्यवर्द्धित उत्पादों में मुरब्बा एक प्रमुख उत्पाद है। इसे बनाने के कई तरीके हैं। पारंपरिक रूप से मुरब्बा बनाने हेतु गुदे हुए आंवले के फलों को 2-8 प्रतिशत नमक के घोल या चूने के पानी में क्रमशः 1-1 दिन तक रखते हैं।

 

 

 

 

 

कैंडी

फलों को अच्छी तरह पानी से धोने के बाद उन्हें खौलते पानी में 6-8 मिनट तक गरम करते हैं। फिर ठंडा करने के बाद फलों से फांके अलग कर लेते हैं। अब इन फांकों को 600 ब्रिक्स शर्करा एवं 0.7 प्रतिशत अम्लीय घोल (1.1.5) के अनुपात में रातभर डुबोकर रखना चाहिए, ताकि परासरणी विधि द्वारा फांकों में शर्करा तथा अम्ल को रिसाया जा सके।

*स्रोत: कृषि विश्वविद्यालय जोधपुर